अध्याय २४

 

अतिमानसिक इन्द्रिय

 

 

अतिमानसिक शक्ति की क्रिया में मानसिक चेतना के सब करणों की अपनी अनुरूप शक्तियां हैं और मन की सभी क्रियाओं के अनुरूप क्रियाएं भी हैं और वहां मानव के ये सब करण और क्रियाएं उन्नत एवं रूपान्तरित हो जाती हैं, परन्तु वहां इनकी प्रधानता एवं आवश्यक महत्ता का क्रम बिल्कुल उलट जाता है । जैसे एक अतिमानसिक चिन्तन-शक्ति तथा अतिमानसिक मूल-चेतना है वैसे ही एक अतिमानसिक इन्द्रिय भी है । इन्द्रिय, मूलतः, शरीर के किन्हीं विशेष अंगों की क्रिया नहीं है, बल्कि वह चेतना का अपने विषयों के साथ सम्पर्क, संज्ञान, है ।

 

  जब किसी व्यक्ति की चेतना पूर्णतया अपने अन्दर मुड़ी होती है तो वह केवल अपने-आपसे, अपनी सत्ता और चेतना से, अपनी सत्ता के आनन्द और सत्ता की एकाग्र शक्ति से ही सचेतन होता है, और इन चीजों के भी बाह्य रूपों से नहीं, बल्कि मूलतत्त्व से । जब वह इस आत्म-निमज्जन से बाहर निकलता है, तो वह अपनी सत्ता, चेतना, आनन्द और शक्ति के व्यापारों एवं रूपों से सचेतन हो जाता है अथवा वह इन्हें अपने आत्म-निमज्जन में से मुक्त या विकसित करता है । तब भी, विज्ञानमय भूमिका में, उसका प्राथमिक (अर्थात् रूपों और क्रियाओं के सम्बन्ध में) ज्ञान एक ऐसे ढंग का रहता है जो आत्मा की स्व-चेतनता के लिये, एकमेव तथा अनन्त के आत्मज्ञान के लिये स्वाभाविक होता है और उसकी विशेषताओं से पूर्णतया युक्त होता है । यह एक ऐसा ज्ञान होता है जो अपने सब विषयों, रूपों और कार्यों को जानता है, अपनी अनन्त आत्मा में उनसे सचेतन होकर यह उन्हें व्यापक रूप से जानता है, उनके अन्दर उनकी आत्मा के रूप में सचेतन होकर यह उन्हें घनिष्ठ रूप से जानता है, उन्हें अपनी सत्ता के साथ एकात्मा अनुभव करके वह उन्हें पूर्ण एवं समग्र रूप से जानता है । उसके अन्य सब प्रकार के ज्ञान इस तादात्म्य-लब्ध ज्ञान से उदित होते हैं, इसके अंग या इसकी क्रियाएं होते हैं, या कम-से-कम अपनी सत्यता और ज्योति के लिये उसपर निर्भर करते हैं, अपनी पृथक् कार्य-प्रणाली में भी उसीसे प्रभावित और पोषित होते हैं और उसे अपना प्रमाण एवं उद्गम मानकर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसीका आश्रय लेते हैं ।

 

  जो क्रिया इस तात्त्विक तादात्म्यलभ्य ज्ञान के सबसे निकट होती है वह एक विशाल सर्वग्राही चेतना ही होती है । यह चेतना अतिमानसिक शक्ति के लक्षणों से विशेषतया युक्त होती है । यह ज्ञान के अन्दर निहित समस्त सत्य एवं विचार को और ज्ञान के समस्त विषय को अपने अन्दर ग्रहण कर लेती है और उनके मूलतत्त्व

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एवं समग्रता को तथा उनके खण्डों या पक्षों को एक साथ देखती है,--विज्ञान । इसकी क्रिया एक समग्र दर्शन एवं ग्रहण की क्रिया है; यह विज्ञानमय पुरुष में विषय का व्यापक ज्ञान तथा उसपर अधिकार है । यह चेतना के विषय को अपनी सत्ता के एक भाग के रूप में या अपने साथ एकीभूत पदार्थ के रूप में, अपने अन्दर धारण करती है । यह एकत्व ज्ञान-प्राप्ति की क्रिया में स्वयंस्फूर्त तथा प्रत्यक्ष रूप से अनुभूत होता है । विज्ञान की एक अन्य क्रिया तादात्म्यलब्ध ज्ञान को अपेक्षाकृत पृष्ठभूमि में रख छोड़ती है और ज्ञात पदार्थ की विषयता (बाह्यता) पर अधिक बल देती है । उसकी विशिष्ट क्रिया, मन में अवतरित होती हुई, हमारे मानसिक ज्ञान के विशेष स्वरूप, प्रज्ञान, का स्रोत बन जाती है । मन के स्तर पर प्रज्ञा (प्रज्ञान) की क्रिया में शुरू-शुरू में ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञात के बीच पार्थक्य एवं भेद रहता है; पर अतिमानस में इसकी क्रिया अभी अनन्त तादात्म्य में या कम-से-कम वैश्व एकत्व में ही होती है । हां, इतना अवश्य है कि विज्ञानमय पुरुष चेतना के विषय को मूल एवं सनातन एकत्व की अधिक प्रत्यक्ष निकटता की स्थिति से कुछ दूर, किन्तु सदा अपने अन्दर ही रखने तथा उसे पुन: एक और ढंग से जानने में आनन्द लेता है जिससे कि वह उसके साथ परस्पर-क्रिया के नानाविध सम्बन्ध स्थापित कर सके जो कि चेतना की लीला की समस्वरता में इतने सारे गौण स्वर (तार) होते हैं । इस अतिमानसिक प्रज्ञा, प्रज्ञान, की क्रिया अतिमानस की एक गौण, तीसरे दर्जे की क्रिया बन जाती है जिसकी पूर्णता के लिये विचार और शब्द की आवश्यकता पड़ती है । उसकी प्रथम क्रिया का स्वरूप तादात्म्यलब्ध ज्ञान का या चेतना के अन्दर व्यापक रूप से धारण कर लेने का होता है और अतएव, वह अपने-आपमें पूर्ण होती है तथा उसे रूप ग्रहण करने के लिये इन साधनों की आवश्यकता नहीं होती । अतिमानसिक प्रज्ञा, प्रज्ञान, का स्वरूप है सत्य का दर्शन, सत्य का श्रवण और सत्य का स्मरण । यद्यपि वह एक प्रकार से स्वतः पर्याप्त हो सकती है तथापि वह विचार और शब्द के द्वारा, जो उसे अभिव्यक्तिमय रूप देते हैं, अपने-आपको अधिक समृद्धतया पूर्ण अनुभव करती है ।

 

   अन्त में, अतिमानसिक चेतना की चौथी क्रिया के द्वारा अतिमानसिक ज्ञान की नानाविध सम्भावनाएं अपनी पूर्णता प्राप्त करती हैं । यह क्रिया ज्ञात वस्तु की बाह्यता पर और भी अधिक बल देती हैं, उसे अनुभव करनेवाली चेतना के केन्द्र-स्थान से दूर रखती है और फिर एक एकत्वसाधक सम्पर्क के द्वारा उसे निकट ले आती है । यह सम्पर्क या तो अव्यवहित समीपता, स्पर्श एवं मिलन के द्वारा साधित होता है अथवा, कुछ कम निकटता के साथ, चेतना के सेतु को पार करके या उसकी सम्बन्ध जोड़नेवाली धारा के द्वारा स्थापित किया जाता है जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है । सत् के साथ, प्रत्यक्ष सत्ताओं, वस्तुओं, रूपों, शक्तियों एवं क्रियाओं के साथ सम्पर्क स्थापित करना, जड़तत्त्व के भेद-विभेदों में तथा स्थूल

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करणों के द्वारा नहीं, वरन् अतिमानसिक सत्ता और शक्ति के उपादान में इनके साथ सम्पर्क स्थापित करना ही अतिमानसिक इन्द्रिय के व्यापार, संज्ञान, को गठित करता है ।

 

   मानव-मन को, जो अभी अपने अनुभव का विस्तार करके अतिमानसिक इन्द्रिय से परिचित नहीं बना है, इस (इन्द्रिय) का स्वरूप समझाना कुछ कठिन है, क्योंकि इन्द्रिय के व्यापार के विषय में हमारा विचार स्थूल मन के सीमाकारी अनुभव के द्वारा शासित है और हम यह समझते हैं कि इसमें मूल वस्तु वह प्रभाव है जो बाह्य पदार्थ के द्वारा आंख, कान, नाक, त्वचा वा रसना-रूपी स्थूल इन्द्रिय पर पड़ता है, और फिर यह है कि हमारी चेतना के वर्तमान प्रधान करण, मन, का काम केवल स्थूल प्रभाव एवं उसके स्नायविक रूपान्तर को ग्रहण करना और इस प्रकार पदार्थ के प्रति बौद्धिक रूप से सचेतन बनना है । इन्द्रिय (व्यापार) के अतिमानसिक रूपान्तर को समझने के लिये हमें पहले यह हृदयंगम करना होगा कि पदार्थ को जानने की स्थूल प्रक्रिया में भी मन ही एकमात्र वास्तविक इन्द्रिय है : स्थूल प्रभावों के प्रति उसकी अधीनता पार्थिव विकास की परिस्थितियों का परिणाम है, पर यह कोई मौलिक एवं अनिवार्य आवश्यकता नहीं है । मन देखने की एक ऐसी शक्ति प्राप्त कर सकता है जो स्थूल आंख से स्वतन्त्र हो, सुनने की भी एक ऐसी शक्ति प्राप्त कर सकता है जो स्थूल कान से स्वतन्त्र हो ओर यही बात अन्य सब इन्द्रियों की क्रिया के बारे में भी समझनी चाहिये । वह ऐसे पदार्थों का भी अनुभव प्राप्त कर सकता है जिनका ज्ञान या संकेततक स्थूल इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त नहीं होता । हमें ऐसा लगता है कि ऐसे अनुभव की प्राप्ति में वह, उसपर पदार्थ के जो संस्कार पड़ते हैं उनके द्वारा, कार्य करता है । वह ऐसे सम्बन्धों, घटनाओं एवं रूपों तक की ओर और शक्तियों की क्रिया की ओर भी उद्घाटित हो सकता है जिनकी साक्षी स्थूल इन्द्रिया नहीं दे सकती थीं । तब, इन दुर्लभतर शक्तियों से सचेतन होकर, हम कहते हैं कि मन छठी इन्द्रिय है; पर सच पूछो तो यही एकमात्र वास्तविक इन्द्रिय है और शेष इन्द्रियां इसके बाह्य, सुविधाजनक साधनों स्व गौण उपकरणों से अधिक कुछ नहीं हैं, यद्यपि इसके उनपर निर्भर करने के कारण, वे इसे सीमित करनेवाली तथा इसकी अत्यन्त अपरिहार्य और एकमात्र सन्देशवाहिका बन बैठी हैं । अपि च, हमें यह भी अनुभव करना होगा--और इस विषय में हमारे जो सामान्य विचार हैं उनके लिये यह स्वीकार करना अधिक कठिन है--कि स्वयं मन भी इन्द्रिय (संज्ञान) का एक विशेष करणमात्र है, किन्तु इन्द्रिय का विशुद्ध स्वरूप, स्वयं इन्द्रिय, अर्थात् संज्ञान मन के पीछे और परे अवस्थित है और इसका (एक करता के रूप में) प्रयोग करता है । यह संज्ञान आत्मा की ही एक क्रिया है, उसके चैतन्य की असीम शक्ति की एक सीधी और मौलिक गति है । इन्द्रिय की विशुद्ध क्रिया एक आध्यात्मिक क्रिया है और स्वयं विशुद्ध इन्द्रिय भी आत्मा की ही एक शक्ति है ।

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  आध्यात्मिक इन्द्रिय सभी वस्तुओं का, वे चाहे कोई भी क्यों न हों, चाहे जड़ वस्तुएं हों या वे जो हमारे लिये अजड़ हैं--सभीका तथा सब रूपों का और रूपातीत का ज्ञान अपने विशिष्ट ढंग से प्राप्त कर सकती है । यह ढंग अतिमानसिक विचार के, अथवा प्रज्ञा या आध्यात्मिक समग्रबोध, अर्थात् विज्ञान, किंवा तादात्म्यलभ्य ज्ञान के ढंग से भिन्न होता है । कारण, सभी वस्तुएं सत् के आध्यात्मिक उपादान से, चिच्छक्ति और आनन्द के आध्यात्मिक उपादान से बनी हुई हैं; और आध्यात्मिक इन्द्रिय, विशुद्ध संज्ञान, का अभिप्राय है चिन्मय सत्ता को अपने आत्मा के सर्वत्र विस्तृत उपादान के स्पर्श का, उसकी पदार्थता का भान होना और साथ ही इस उपादान के अन्दर उस सबका भी भान होना जो इस अनन्त या विराट् तत्त्व से बना है । हम आत्मा, 'पुरुष', भगवान् एवं अनन्त को केवल सचेतन तादात्म्य के द्वारा, सत्ता के, मूलतत्त्वों और पक्षों के, शक्ति, लीला और क्रिया के आध्यात्मिक समग्र-बोध के द्वारा, अपरोक्ष, आध्यात्मिक, अतिमानसिक एवं बोधिमूलक विचारमय ज्ञान के द्वारा, हृदय के अध्यात्म-प्रकाशित एवं विज्ञान-आलोकित वेदन, प्रेम और आनन्द के द्वारा ही नहीं जान सकते, वरन् अत्यत्त शाब्दिक अर्थ में उसका इन्द्रियानुभव-इन्द्रिय-ज्ञान या सम्वेदन--भी प्राप्त कर सकते हैं । बृहदारण्यक उपनिषद् में एक ऐसी स्थिति का वर्णन आया है जिसमें व्यक्ति सब प्रकार से ब्रह्म को और केवल ब्रह्म को ही देखता और सुनता है, अनुभव और स्पर्श करता तथा मात्रा स्पर्शों के द्वारा जानता है, क्योंकि तब सभी पदार्थ चेतना के लिये ब्रह्म ही बन गये होते हैं और उनका उससे भिन्न, पृथक् या स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रह जाता । यह स्थिति कोई अलंकारमात्र नहीं है, बल्कि विशुद्ध इन्द्रिय की आधारभूत क्रिया का, शुद्ध संज्ञान के आध्यात्मिक विषय का यथायथ वर्णन् है । यह मूल क्रिया हमारे अनुभव के लिये इन्द्रिय की एक रूपान्तरित, महिमान्वित और अनन्तानन्दपूर्ण क्रिया है, आत्मा का अपने अन्दर, चारों ओर तथा सर्वत्र प्रत्यक्षानुभव है, जिसका प्रयोजन उसकी विराट् सत्ता में विद्यमान सभी वस्तुओं का आलिंगन और स्पर्श करना तथा उनका ऐन्द्रिय सम्वेदन प्राप्त करना होता है । इस क्रिया में हम एक अत्यन्त मर्मस्पर्शी एवं आनन्दपूर्ण ढंग से 'अनन्त' का तथा उसके अन्दर जो कुछ भी है उस सबका ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । साथ ही, समस्त सत्ता के साथ अपनी सत्ता के घनिष्ठ सम्पर्क के द्वारा हम उस सबका ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं जो कुछ कि इस विश्व में है ।

 

  अतिमानसिक इन्द्रिय की क्रिया इन्द्रिय-विषयक इस वास्तविक सत्य पर आधारित है; वह इस शुद्ध, आध्यात्मिक, अनन्त, निरपेक्ष संज्ञान की एक व्यवस्थित क्रिया है । इन्द्रिय के द्वारा कार्य करता हुआ अतिमानस सभी चीजों को भगवान् के रूप में तथा भगवान् के अन्दर अनुभव करता है, सब पदार्थों को अनन्त के व्यक्त स्पर्श, रूप, शब्द, रस और गन्ध के रूप में, अनन्त के अनुभूत, दृष्ट एवं

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साक्षात्कृत उपादान, बल, शक्ति, क्रिया एवं लीला के रूप में उसके अनुप्रवेश (व्यापकता), स्पन्दन, रूप, सामीप्य, दबाव, तथा वास्तविक आदान-प्रदान से युक्त पदार्थों के रूप में अनुभव करता है । उसके इन्द्रियानुभव के लिये कोई भी चीज अनन्त ब्रह्म से स्वतन्त्र रूप में अस्तित्व नहीं रखती, वरन् सब कुछ एक ही सत्ता एवं गति के रूप में अनुभूत होता है और प्रत्येक वस्तु यों प्रतीत होती है कि वह शेष सब से विभक्त नहीं हो सकती तथा अपने अन्दर सम्पूर्ण 'अनन्त' को, सम्पूर्ण भगवान् को धारण किये है । इस अतिमानसिक इन्द्रिय को केवल रूपों का ही नहीं, बल्कि शक्तियों का और पदार्थों में विद्यमान ऊर्जा एवं गुण का तथा उस दिव्य वस्तु एवं उपस्थिति का भी साक्षात् वेदन एवं अनुभव होता है जो उनके अन्दर और चारों ओर विद्यमान है और जिसके अन्दर वे (सब पदार्थ), अपने गुप्त सूक्ष्म स्वरूप और तत्त्वों में, अपने-आपको खोलते तथा विस्तारित करते हैं और इस प्रकार असीम के अन्दर विस्तृत होकर उसके साथ एक हो जाते हैं । अतिमानसिक इन्द्रिय के लिये ऐसा कुछ भी नहीं है जो वस्तुत: सान्त हो : वह प्रत्येक में सबको और सबमें प्रत्येक को अनुभव करती है और इस अनुभव पर ही अपना आधार रखती है । अतिमानस द्वारा की हुई अतिमानसिक इन्द्रिय-बोध की व्याख्या यद्यपि मानसिक व्याख्या से अधिक यथार्थ एवं पूर्ण होती है तथापि वह सीमा की दीवारें नहीं खड़ी करती । वह एक महासागर एवं आकाश-जैसी इन्द्रिय है जिसमें तत्तत् प्रत्येक इन्द्रिय-बोध एवं संवेदन एक ऐसी तरंग या गति या फुहार या बिन्दु होता है जो बिन्दु होने पर भी सम्पूर्ण सागर का एक घनीभूत रूप होता है और जिसे सागर से पृथक् नहीं किया जा सकता । उसकी क्रिया सत्ता और चेतना को ज्योति, शक्ति और आनन्द के आकाशातीत आकाश में, उपनिषदों के आनन्द-आकाश में विस्तारित और स्पन्दित करने के परिणाम के रूप में उत्पन्न होती है । यह आनन्द-आकाश परमात्मा की विश्वमय अभिव्यक्ति का सांचा और आधार है, --यहां देह और मन में सीमित विस्तारों और स्पन्दनों में ही अनुभूत होता है, --और उसके वास्तविक अनुभव का माध्यम भी है । यह इन्द्रिय-चेतना (संज्ञान) अपनी निम्नतम शक्ति में भी एक ऐसी सत्योद्धासक ज्योति से प्रकाशमान होती है जो अपने अनुभव में आनेवाली वस्तु के रहस्य को अपने अन्दर धारण करती है और अतएव शेष सारे अतिमानसिक ज्ञान का, --अतिमानसिक विचार, आध्यात्मिक प्रज्ञा और समग्रबोध, सचेतन तादात्म्य का,--आरम्भ-बिन्दु एवं आधार बन सकती है । अपनी उच्चतम भूमिका में या अपनी क्रिया की अतिशय तीव्रता की अवस्था में यह (इन्द्रिय-चेतना) इन वस्तुओं की ओर खुलती है या इन्हें अपने अन्दर धारण किये रहती है और अपने अन्दर से तुरन्त मुक्त भी करती है । यह एक ऐसी ज्योतिर्मय शक्ति से सम्पन्न है जो अपने अन्दर आत्म-साक्षात्कार की शक्ति तथा एक अतिशय तीव्र या असीम फलसाधकता को धारण करती है, और अतएव यह

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इन्द्रियानुभव आध्यात्मिक एवं अतिमानसिक संकल्प और ज्ञान की सर्जनशील या चरितार्थताकारी क्रिया की प्रेरणा का आरम्भ-बिन्दु हो सकता है । यह एक ऐसे शक्तिशाली और ज्योतिर्मय आनन्द की मस्ती से भरी होती है जो इसे अर्थात् समस्त इन्द्रियानुभव एवं संवेदन को दिव्य एवं अनन्त आनन्द की कुंजी या उसका पात्र बना देता है ।

 

   अतिमानसिक इन्द्रिय-चेतना अपनी निज शक्ति से कार्य कर सकती है और अपने कार्य के लिये वह शरीर, स्थूल प्राण और बाह्य मन पर निर्भर नहीं करती तथा वह आन्तर मन और उसके अनुभवों के भी ऊपर स्थित है । वह सभी वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त कर सकती है, चाहे वे किसी भी लोक या किसी भी स्तर की क्यों न हों अथवा वैश्व चेतना के किसी भी रूपायण के अन्तर्गत क्यों न हों । समाधि की तन्मयावस्था में भी वह स्थूल जगत् की वस्तुओं से सचेतन हो सकती है, वे जैसी हैं या स्थूल इन्द्रियों को जैसी प्रतीत होती हैं उस रूप में उन्हें ठीक वैसे ही जान सकती है जैसे कि वह अनुभव की अन्य अवस्थाओं को, अर्थात् पदार्थों के शुद्ध-प्राणिक, मानसिक, चैत्य एवं अतिमानसिक रूप को जानती है । भौतिक चेतना की जाग्रत् अवस्था में वह हमारे सामने ऐसी चीजों को भी प्रस्तुत कर सकती है जो हमारी सीमित ग्रहणशीलता से छुपी हुई हैं या स्थूल इन्द्रियों के क्षेत्र से परे हैं, उदाहरणार्थ, सुदूरस्थित आकारों, दृश्यों एवं घटनाओं को, उन पदार्थों को जो भौतिक सत्ता में से विलुप्त हो चुके हैं; अथवा उन्हें जो अभी भौतिक अस्तित्व में आये ही नहीं हैं, जैसे, प्राणिक, चैत्य, मानसिक, अतिमानसिक एवं आध्यात्मिक लोकों के दृश्यों, आकारों, घटनाओं तथा प्रतीकों को--इन सबको वह इनके वास्तविक या अर्थपूर्ण सत्य में तथा इनके बाह्य रूप में प्रस्तुत कर सकती है । वह इन्द्रिय-चेतना की अन्य सब अवस्थाओं को तथा उनकी उपयुक्त इन्द्रियों एवं करणों को भी प्रयुक्त कर सकती है और इस प्रकार उनमें उस चीज की वृद्धि कर सकती है जो उनमें नहीं है, उनकी भूलों को सुधारकर उनकी कमियों को पूरा कर सकती है : क्योंकि वह इन्द्रिय-चेतना की अन्य अवस्थाओं का उद्गम है और वे तो इस उच्चतर इन्द्रिय-चेतना से, इस सच्चे और असीम संज्ञान से उद्भूत निम्न क्रियाएं मात्र हैं ।

 

 

  यदि चेतना का स्तर मन से अतिमानस तक उठ जाये और उसके परिणामस्वरूप हमारी सत्ता मनोमय पुरुष की अवस्था से विज्ञानमय पुरुष की अवस्था में रूपान्तरित हो जाये तो इसके साथ ही, इस अवस्था के पूर्ण होने के लिये, प्रकृति के सभी भागों और उसकी समस्त क्रियाओं का रूपान्तर हो ही जायेगा । हमारा सारा मन

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अतिमानसिक क्रियाओं की एक निष्क्रिय प्रणालिका, प्राण और शरीर के अन्दर उनके अधःप्रवाह की और साथ ही उनके बहि:प्रवाह की या बाह्य जगत् अर्थात् जड़ सत्ता के साथ उनके आदान-प्रदान की प्रणालिका बन जाता है--यह तो प्रक्रिया की केवल पहली अवस्था है । इसके साथ ही वह स्वयं तथा उसके सब उपकरण भी विज्ञानमय बन जाते हैं । तदनुसार स्थूल इन्द्रियानुभव में भी एक परिवर्तन, एक गहन रूपान्तर हो जाता है, स्थूल अवलोकन, श्रवण और स्पर्श आदि का भी अतिमानसीकरण हो जाता है जो जीवन और उसके प्रयोजन के ही नहीं वरन् जड़ जगत् और उसके सभी रूपों तथा पक्षों के भी एक सर्वथा भिन्न दृश्य की सृष्टि करता है या उसे हमार समक्ष प्रकट करता है । अतिमानस भौतिक करणों का प्रयोग करता तथा उनकी कार्यप्रणाली को समुष्ट करता है, पर वह उनके पीछे उन आभ्यन्तर एवं गहनतर इन्द्रियों को विकसित करता है जो स्थूल इन्द्रियों से छिपे हुए पदार्थों को भी देखती हैं तथा आगे चलकर वह इस प्रकार सृष्ट हुए नये चक्षु श्रोत्र आदि को भी अपने सांचे में एवं इन्द्रियानुभव करने की अपनी प्रणाली में ढालकर रूपान्तरित कर देता है । यह एक ऐसा रूपान्तर होता है जो पदार्थ के भौतिक सत्य में से कुछ भी कम नहीं करता, वरन् अपना अतिभौतिक सत्य उसमें जोड़ देता है और अनुभव के भौतिक ढंग में जो मिथ्यात्व का अंश है उसे वह उसकी भौतिक सीमा को दूर करके निकाल डालता है ।

 

   भौतिक इन्द्रियों के अतिमानसीकरण का जो परिणाम हमारे सामने आता है वह इस (इन्द्रियानुभव-रूपी) क्षेत्र में उस परिणाम के सदृश ही होता है जो कि चिन्तन एवं मानसिक चेतना के रूपान्तर के क्षेत्र में हमारे अनुभव में आता है । उदाहरणार्थ, ज्योंही हमारी दृष्टि अतिमानसिक अवलोकन के प्रभाव में आकर परिवर्तित होती है त्योंही हमारे चक्षु को पदार्थों का तथा हमारे चारों ओर के जगत् का एक नया एवं रूपान्तरित साक्षात्कार प्राप्त होने लगता है । उसकी दृष्टि को एक असाधारण समग्रता तथा आशु एवं सर्वग्राही यथार्थता प्राप्त हो जाती हैं । इस समग्रता एवं यथार्थता में वस्तु का समग्र रूप तथा उसका प्रत्येक व्योरा तुरन्त ही उस पूर्ण सामञ्जस्य के साथ तथा उस गूढ़ आशय की स्पष्टता के साथ प्रकट हो उठते हैं जो प्रकृति को उस वस्तु के अन्दर अभिप्रेत होते हैं तथा जिन्हें वह, अन्नमय सत्ता पर विजय पाकर वस्तु के रूप के अन्दर अपने एक विचार को मूर्तिमन्त करती हुई, प्रकट करना चाहती है । यह तो ऐसा होता है मानों हमारी धुंधली या क्षुद्र एवं अन्ध साधारण दृष्टि का स्थान किसी कवि और कलाकार की आंख ने ले लिया हो, पर वह स्वयं भी अद्भुत रूप से आध्यात्मिक एवं महिमान्वित हो गयी हों, --मानों कि जिस दृष्टि में हम भाग ले रहे हैं वह, वास्तव में, परम दिव्य कवि एवं कलाकार की ही दृष्टि हो और विश्व की तथा विश्वगत प्रत्येक वस्तु की योजना में उसका जो सत्य एवं आशय अन्तर्निहित हैं उनका पूर्ण

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साक्षात्कार हमें प्रदान कर दिया गया हो । इस अतिमानसिक दृष्टि में एक असीम प्रकर्ष एवं प्रखरता होती है जो, हम जो कुछ भी देखते हैं उस सबको गुण, विचार, रूप और रंग की गरिमा की एक अभिव्यक्ति बना देती है । तब भौतिक आंख अपने अन्दर एक ऐसी आत्मा एवं चेतना को धारण करती प्रतीत होती है जो पदार्थ के केवल भौतिक पहलू को ही नहीं देखती बल्कि उसके अन्तर्निहित गुण की आत्मा को, शक्ति के स्पन्दन को तथा उन ज्योति, शक्ति और आध्यात्मिक उपादान को भी देखती है जिनसे कि वह पदार्थ बना हुआ है । इस प्रकार, ऐन्द्रिय-प्रत्यक्ष के भीतर और पीछे जो समग्र इन्द्रिय-चेतना विद्यमान है उसे, भौतिक इन्द्रिय के द्वारा, दृष्ट वस्तु की आत्मा का तथा उस विश्वात्मा का साक्षात्कार प्राप्त हो जाता है जो अपनी ही चेतन सत्ता के इस बहिर्गत रूप में अपने-आपको प्रकट कर रहा है ।

 

  इसके साथ ही एक सूक्ष्म परिवर्तन भी घटित होता है जो आंख को एक प्रकार के चौथे दिङ्मान में देखने की सामर्थ्य देता है । इस दिङ्मान का विशेष लक्षण है एक प्रकार की अन्तर्मुखता, उपरितल एवं बाह्य रूप को ही नहीं बल्कि उस तत्त्व को भी देखना जो इसे अनुप्राणित करता है तथा इसके चारों ओर सूक्ष्म रूप से फैला रहता है । जड़ पदार्थ इस दृष्टि के लिये उससे भिन्न कोई चीज बन जाता है जिसे हम इस समय देखते हैं, वह शेष प्रकृति की पृष्ठभूमि पर या उसके घेरे के अन्दर एक पृथक् पदार्थ नहीं रहता, वरन् हम जो कुछ भी देखते हैं उस सबकी एकता का एक अविभाज्य अंग तथा एक सूक्ष्म रूप में उसकी एक अभिव्यक्ति तक बन जाता है । और यह एकता, जिसका हमें साक्षात्कार होता है, केवल सूक्ष्मतर चेतना को ही नहीं बल्कि स्वयं कोरे चर्मचक्षु को एवं आलोकित स्थूल दृष्टि को भी 'सनातन' की अभेदमयता, ब्रह्म की अद्वेतात्मकता के रूप में प्रत्यक्ष होने लगती है । कारण, अतिमानसीकुत दृष्टि के लिये जड़ जगत् 'देश' और जड़ पदार्थ उस अर्थ में जड़ नहीं रहते जिस अर्थ में हम उन्हें आज अपनी सीमित स्थूल इन्द्रियों की और उनके द्वारा देखनेवाली भौतिक चेतना की एकमात्र साक्षी के बलपर अपने स्थूल प्रत्यक्ष के द्वारा ग्रहण करते हैं तथा जड़तत्त्व-विषयक अपनी परिकल्पना के द्वारा समझते हैं । यह जड़ जगत् एवं 'देश' और ये पदार्थ साक्षात् आत्मा ही प्रतीत होते एवं दिखाई देते हैं--ऐसा आत्मा जो अपने ही एक रूप में तथा अपने चेतन विस्तार में यहां विद्यमान है । सब कुछ ही एक अखण्ड एकत्व है--ऐसा एकत्व जो पदार्थों और व्योरों की किसी भी बहुलता से प्रभावित नहीं होता । इस एकत्व को चेतना अपने अन्दर आत्मिक आकाश में धारण करती है और वहां समस्त उपादान चेतन उपादान है । देखने के ढंग का यह रूपान्तर एवं उसकी यह समग्रता हमें अपने वर्तमान स्थूल चक्षु की सीमाओं को पार करने से ही प्राप्त होती हैं, क्योंकि सूक्ष्म या चैत्य आंख की शक्ति हमारी स्थूल आंख में संचारित हो जाती है और फिर दृष्टि की इस चैत्य-भौतिक शक्ति में आध्यात्मिक दृष्टि, शुद्ध इन्द्रिय-शक्ति, अतिमानसिक संज्ञान सञ्चारित हो जाता है ।

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  अन्य सब इन्द्रियों का भी इसी प्रकार का रूपान्तर हो जाता है । कान जो कुछ भी सुनता है वह सब अपनी नाद-रूपी देह की तथा नाद के गर्भित अर्थ की समग्रता को और अपने कंपन के सभी सुरों को प्रकाशित कर देता है । साथ ही वह एक ही अखण्ड एवं पूर्ण श्रवण के प्रति नाद के गुण, उसकी लयात्मक शक्ति और आत्मा को तथा उसके द्वारा होनेवाली एकमेव विराट् आत्मा की अभिव्यक्ति को भी प्रकाशित कर देता है । यहां भी वैसी ही आन्तरिकता पायी जाती है, अर्थात् श्रोत्रेन्द्रिय ध्वनि की गहराइयों में जाती है और वहां उस चीज को ढूंढ़ निकालती है जो ध्वनि को अनुप्राणित करती है तथा उसे विस्तृत करके समस्त ध्वनि एवं समस्त नीरवता की स्वर-सुषमा के साथ एकत्व में प्रतिष्ठित कर देती है, फलत: श्रोत्र सदा ही अनन्त की श्रवण-गोचर अभिव्यक्ति का एवं उसकी नीरवता की वाणी का श्रवण करता रहता है । विज्ञानमय रूपान्तर को प्राप्त श्रोत्र के लिये सब ध्वनियां भगवान् की वाणी बन जाती हैं जो उस ध्वनि के भीतर स्वयं प्रादुर्भूत होता है, और साथ ही वे उसे वैश्व स्वर-संगति की एकतानता में लयताल के रूप में अनुभूत होती हैं । और यहां भी वैसी ही पूर्णता, सजीवता, तीव्रता, श्रुत शब्द की आत्मा की अभिव्यक्ति तथा श्रवण-क्रिया में आत्मा की आध्यात्मिक तृप्ति अनुभव में आती हैं । विज्ञानभावापन्न स्पर्शेन्द्रिय भी सब वस्तुओं में भगवान् का सम्पर्क प्राप्त करती है अथवा सबमें उन्हींको स्पर्श करती है और स्पर्श में विद्यमान अपनी सचेतन सत्ता के द्वारा सब वस्तुओं को भगवान् के रूप में ही अनुभव करती है : और यहां भी वैसी ही समग्रता एवं तीव्रता पायी जाती है तथा स्पर्श के अन्दर और पीछे जो कुछ भी विद्यमान है वह सब अनुभव-कारिणी चेतना के समक्ष प्रकाशित हो उठता है । अन्य इन्द्रियों का भी इसी प्रकार का रूपान्तर हो जाता है ।

 

   इसके साध ही सभी इन्द्रियों में नयी शक्तियां खुल जाती हैं, उनका क्षेत्र विस्तृत हो जाता है तथा भौतिक चेतना एक अतर्कित क्षमता की सीमा तक विस्तृत हो जाती है । अतिमानसिक रूपान्तर भौतिक चेतना को शरीर की सीमाओं से बहुत ही परेतक विस्तृत कर देता है और उसे दूरस्थ वस्तुओं का स्थूल स्पर्श पूर्ण मूर्तता के साथ प्राप्त करने की सामर्थ्य प्रदान करता है । स्थूल इन्द्रियां चैत्य तथा अन्य इन्द्रियों के लिये प्रणालिकाओं का कार्य करने में समर्थ बन जाती हैं । फलत:, जो चीजें साधारणत: केवल असामान्य अवस्थाओं में तथा चैत्य अवलोकन, श्रवण या अन्य-विध इन्द्रिय-ज्ञान के प्रति ही प्रकाशित होती हैं उन्हें भी हम जाग्रत् अवस्था में स्थूल चक्षु से देख सकते हैं । ऐसे समयों में वस्तुत: अध्यात्मसत्ता या अन्तरात्मा ही देखती और ऐन्द्रियबोध प्राप्त करती है, पर स्वयं शरीर और उसकी शक्तियां भी अध्यात्ममय बन जाती हैं और अनुभव में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेती हैं । इन्द्रियों के द्वारा होनेवाले समस्त भौतिक सम्वेदन का विज्ञानमय रूपान्तर हो जाता है और इन्द्रियां शक्तियों एवं गतियों को तथा पदार्थों और प्राणियों के भौतिक, प्राणिक,

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भाविक एवं मानसिक स्पन्दनों को सीधे ही अनुभव करने लगती हैं, इस अनुभव में स्थूल रूप से भाग लेती हैं और अन्त में तो वे इन चीजों को सूक्ष्मतर करणों के साथ एकाकार होकर अनुभव करती हैं । इन सबको वे अपनी अन्तःसत्ता में आत्मिक या मानसिक रूप से ही नहीं वरन् शारीरिक रूप से तथा इन अनेकानेक शरीरों में विद्यमान एक ही आत्मा की गतियों के रूप में भी अनुभव करती हैं । शरीर और उसकी इन्द्रियों की सीमाओं ने हमारे चारों ओर जो दीवार खड़ी कर रखी है वह स्वयं शरीर और इन्द्रियों के रहते भी ढह जाती है और उसके स्थान पर सनातन एकत्व का मुक्त आदान-प्रदान होने लगता है । समस्त इन्द्रियां और उनके सम्वेदन दिव्य ज्योति से, अनुभव की दिव्य शक्ति एवं तीव्रता से, दिव्य हर्ष एवं ब्रह्मानन्द से ओतप्रोत हों जाते हैं । जो कुछ आज हमारे लिये बेसुरा है और इन्द्रियों को कर्कश प्रतीत होता है वह भी तब वैश्व गति की वैश्व समस्वरता में अपना स्थान पा लेता है, अपना रस, आशय एवं उदेश्य प्रकट कर देता है और इस प्रकार, भागवत चेतना में निहित 'अपने अस्तित्व के मूल हेतु' में आनन्द लेते हुए, अपने विधान एवं धर्म की अभिव्यक्ति के द्वारा, समग्र सत्ता के साथ अपने सामंजस्य तथा भागवत सत्ता की अभिव्यक्ति में अपने स्थान के द्वारा हमारे अन्तरनुभव के प्रति सुन्दर और सुखद बन जाता है । समस्त सम्वेदन आनन्द का रूप धारण कर लेता है ।

 

  हमारा देह-स्थित मन साधारणतया स्थूल इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान प्राप्त करता है और उनके द्वारा भी वह उनके विषयों को तथा उन आभ्यन्तरिक अनुभवों को ही जान पाता है जो स्थूल अनुभवों से उद्भूत होते दीखते हैं तथा जो, सुदूर परम्परा से ही क्यों न हो, उन्हींको अपना आधार तथा अपनी रचना का सांचा मानते प्रतीत होते हैं । शेष सब कुछ, वह सब कुछ जो इन्द्रिय-गोचर स्वीकृत-तथ्यों से संगत नहीं है अथवा उनका अंग या उनके द्वारा संपुष्ट नहीं है वह उसे सत्य से कहीं अधिक एक कल्पना प्रतीत होता है और केवल असामान्य अवस्थाओं में ही वह (हमारा मन) अन्य प्रकार के चेतन अनुभवों की ओर खुलता है । पर वास्तव में स्थूल भूमिका के पीछे अनुभव की अनेक विशाल भूमिकाएं हैं और यदि हम अपनी अन्तःसत्ता के द्वार खोल दें तो हम इन्हें जान सकते हैं । ये भूमिकाएं वहां पहले से ही कार्य कर रही हैं और हमारे अन्दर प्रच्छन्न पुरुष इन्हें जानता भी है, और हमारी स्थूल चेतना का भी बहुत-सा भाग सीधे इन्हींसे उद्भूत होता है तथा हमारे बिना जाने वह पदार्थ-विषयक हमारे अन्तरीय अनुभव को प्रभावित करता है । स्थूल चेतना के पीछे स्वतन्त्र प्राणिक अनुभवों की भी एक भूमिका है जो प्राणभावापन्न भौतिक चेतना की स्थूल क्रिया के स्तर के नीचे प्रच्छन्न रूप में विद्यमान है तथा उससे भिन्न है । और जब यह भूमिका अपने-आपको खोल देती है या किसी प्रकार से कार्य करने लगती है तब जाग्रत् मन के सामने एक प्राणिक चेतना, एक प्राणिक अन्तर्ज्ञान एवं प्राणिक इन्द्रिय-शक्ति के दृग्विषय प्रकट हो उठते

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हैं । यह प्राणिक चेतना, अन्तज्ञान किंवा इन्द्रिय-शक्ति शरीर और उसके करणों पर निर्भर नहीं करती, यद्यपि यह एक गौण माध्यम या एक वृत्त-संग्राहक के रूप में उनका प्रयोग कर सकती है । इस स्तर को पूर्ण रूप से भी खोला जा सकता है और जब हम ऐसा करते हैं तो हमें पता चलता है कि इसकी क्रिया हमारे अन्दर की व्यक्तिभावापन्न सचेतन प्राण-शक्ति की ही एक क्रिया है जिसे वह तब करती है जब वह विराट् प्राणशक्ति के सम्पर्क में आ जाती है तथा वस्तुओं, घटनाओं और व्यक्तियों में होनेवाली उसकी क्रियाओं का भी स्पर्श प्राप्त करती है । हमारे मन को उन सब वस्तुओं में व्याप रही प्राणमय चेतना का भान हो जाता है और वह उसे हमारी प्राण-चेतना के द्वारा तुरन्त एवं सीधे ही प्रत्युत्तर देता है । अपनी इस क्रिया में वह शरीर और उसकी इन्द्रियों के द्वारा होनेवाले साधारण आदान-प्रदान से सीमित नहीं होता । वह इस सर्वव्यापी प्राणमय चेतना से प्राप्त होनेवाली अन्त:स्फूरणाओं को अंकित करता है, सत्तामात्र को वैश्व प्राण की एक विशिष्ट अभिव्यक्ति के रूप में अनुभव करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है । जिस क्षेत्र को प्राणमय चेतना एवं प्राणमय इन्द्रिय मुख्य रूप से जानती है वह रूपों का नहीं वरन् सीधे ही शक्तियों का क्षेत्र है : उसका जगत् शक्तियों की क्रीड़ा का जगत् है, और उसे रूप एवं घटनाएं तो शक्तियों के परिणाम एवं मूर्त आकार के रूप में केवल गौण रूप से ही अनुभूत होती हैं । स्थूल इन्द्रियों के द्वारा कार्य करनेवाला मानव मन एक बुद्धिगत विचार के रूप में ही इस भूमिका की कल्पना कर सकता है एवं इसका ज्ञान प्राप्त कर सकता है, पर वह शक्तियों की भौतिक प्रतिमूर्ति के परे नहीं जा सकता, और अतएव उसे प्राण के यथार्थ स्वरूप का वास्तविक या प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त नहीं होता, प्राण-शक्ति एवं वास्तविक प्राण-सत्ता की यथार्थ उपलब्धि नहीं होती । हमारे अन्दर अवस्थित अनुभव के इस अन्य स्तर या गहराई को खोलने से और प्राणमय चेतना एवं प्राणेन्द्रियों में प्रवेश पाने से ही मन यथार्थ एवं प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त कर सकता है । तथापि, जबतक यह अनुभव हमें मानसिक स्तर पर ही होता है तबतक यह प्राणिक परिभाषाओं तथा उनके मानसिक रूपान्तरों से सीमित रहता है और इस विस्तारित इन्द्रियानुभव एवं ज्ञान में भी धूमिलता रहती है । अतिमानसिक रूपान्तर प्राण को अतिप्राणिक रूप में परिणत कर देता है, उसे आत्मा की गतिशक्ति के रूप में प्रकट कर देता है, प्राण-शक्ति एवं प्राण-सत्ता के पीछे और भीतर निहित समस्त आध्यात्मिक सद्वस्तु को और उसके समस्त आध्यात्मिक, मानसिक एवं शुद्ध-प्राणिक सत्य और मर्म को पूर्ण रूप से अनावृत तथा यथार्थ रूप से प्रकाशित कर देता है ।

 

  भौतिक सत्ता में अवतरित होते समय अतिमानस हमारे अन्दर की उस (प्राणिक) चेतना को, जो हममें से बहुतों के अन्दर छुपी हुई है या तम से ढकी पड़ी है और जो प्राण-कोष का धारण एवं गठन करती है, जागृत कर देता है यदि

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वह पहले ही हमारी पिछली योग-साधना के द्वारा जाग न चुकी हों । जब यह जाग जाती है, तबसे हम केवल स्थूल शरीर में ही नहीं अपितु एक प्राणमय शरीर में भी निवास करते हैं जो स्थूल शरीर के भीतर ओतप्रोत है और उसे सब ओर से घेरे भी हुए है तथा एक अन्य प्रकार के आघातों के प्रति सम्वेदनशील है और उन प्राणिक शक्तियों की क्रीड़ा को भी तुरन्त सूक्ष्मता के साथ अनुभव कर सकता है जो हमारे चारों ओर विद्यमान है तथा जो विश्व से या विशेष व्यक्तियों से अथवा समष्टि जीवनों से या पदार्थों से किंवा इस जड़ जगत् के पीछे विद्यमान प्राणिक स्तरों एवं लोकों से हमपर आक्रमण करके हमारे अन्दर घुस आती हैं । इन आघातों को हम इनके परिणामों तथा कुछ-एक स्पर्शों एवं छद्मवेशों के रूप में आज भी अनुभव करते हैं, पर यह तो हम बिल्कुल ही नहीं जानते या बहुत ही कम जानते हैं कि इनका मूल स्रोत क्या है और ये आते कैसे हैं । प्राण-शरीर में रहनेवाली चेतना जब जाग जाती है तो वह इन्हें तुरन्त ही अनुभव कर लेती है, वह भौतिक शक्ति से भिन्न एक अन्य, व्यापक प्राण-शक्ति को जान जाती है, और प्राण-बल बढ़ाने एवं भौतिक शक्तियों को धारण करने के लिये उसमें से शक्ति आहरण कर सकती है, प्राण के इस अन्त:प्रवाह के द्वारा या प्राणधाराओं को अभीष्ट लक्ष्य पर प्रेरित करके स्वास्थ्य और रोग की अवस्थाओं तथा कारणों के साथ सीधे ही बर्ताव कर सकती है, दूसरों के प्राणिक और प्राणावेगमय वातावरण को अनुभव कर सकती है, तथा उसके साथ स्वेच्छापूर्वक आदान-प्रदान कर सकती है, इसके अतिरिक्त वह और भी कितने ही दृग्विषयों को अनुभव कर सकती है जो हमारी बाह्य चेतना के अनुभव में नहीं आते या उसके प्रति अस्पष्ट ही रहते हैं पर जो इस प्राणिक चेतना में सचेतन एवं सम्वेद्य बन जाते हैं । यह हमारे तथा दूसरों के अन्दर विद्यमान प्राणमय पुरुष एवं प्राण-शरीर को तीव्र रूप से अनुभव करती है । अतिमानस इस प्राणिक चेतना एवं प्राणेन्द्रिय को अपने हाथ में लेकर इसे इसके यथार्थ आधार के ऊपर स्थापित करता है और इसे रूपान्तरित कर देता है यह प्रकट करके कि यहां जो प्राण-शक्ति है वह आत्मा की ही निज शक्ति है जिसे इसलिये सक्रिय किया गया है कि आत्मा सूक्ष्म एवं स्थूल पदार्थ पर तथा उसके द्वारा घनिष्ठ एवं सीधी क्रिया कर सके ओर जड़ जगत् में रूपों का गठन तथा अपना कार्य-व्यापार भी कर सके ।

 

  इसका पहला परिणाम यह होता है कि हमारी वैयक्तिक प्राण-सत्ता की सीमाएं टूट जाती हैं और आगे से हम व्यक्तिगत प्राणशक्ति के द्वारा नहीं जीते, --यह भी नहीं कि अब भी साधारणतया उसके द्वारा जीते हों, -बल्कि विराट् प्राण-शक्ति के अन्दर और उसके द्वारा ही जीते हैं । सारा वैश्वप्राण ही सचेतन रूप से हमारे अन्दर और हमारे द्वारा प्रवाहित होता हुआ आता है, वहां वह एक क्रियाशील अविच्छिन्न आवर्त को, अपनी शक्ति के एक अविभक्त केन्द्र को, संग्रह एवं आदान-प्रदान के प्रस्पन्दनशील स्टेशन को बनाये रखता है, उसे अपनी शक्तियों से निरन्तर परिपूरित

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करता रहता है और उन्हें हमारे चारों ओरके जगत् पर क्रिया-व्यापार के रूप में उण्डेलता रहता है । और फिर इस प्राण-शक्ति को हम प्राण के एक महासागर और उसकी धाराओं के रूप में ही अनुभव नहीं करते, बल्कि एक चिन्मय वैश्व शक्ति के प्राणमय रूप-स्वरूप, प्राणमय देह और प्रवाह के रूप में भी अनुभव करते हैं । वह सचेतन शक्ति अपने-आपको भगवान् की चित्शक्ति, परात्पर और विराट् आत्मा तथा पुरुष की शक्ति के रूप में प्रकट करती है, --हमारा विश्वभावापन्न व्यक्तित्व इन्हींका--या यूं कहें कि परात्पर और विराट् 'पुरुषों' का-यन्त्र एवं प्रणालिका बन जाता है । इसके फलस्वरूप हम अपने-आपको अन्य सबके प्राण के साथ, समस्त विश्वप्रकृति के और जगत् की सब वस्तुओं के प्राण के साथ एकमय अनुभव करते हैं । हमारे अन्दर कार्य कर रही प्राण-शक्ति दूसरों में कार्य कर रही उसी शक्ति के साथ मुक्त और सचेतन रूप से आदान-प्रदान करती है । हमें उनके प्राण का भी उसी तरह भान होता है जिस तरह अपने अथवा, कम-से-कम, हमें इतना भान अवश्य होता है कि हमारी प्राणमय सत्ता उन्हें स्पर्श करती है, उनपर दबाव डालती है तथा अपनी क्रियाएं उनतक सम्प्रेषित करती है और उनकी प्राण-सत्ता भी हमारे साथ यह सब व्यवहार करती है । हमारी प्राणेन्द्रिय शक्तिशाली और तीक्ष्ण बन जाती है, इस प्राण-जगत् के--इसके सभी स्तरों, भौतिक और अतिभौतिक, प्राणिक और अतिप्राणिक के-समस्त, छोटे या बड़े, सूक्ष्म या स्थूल स्पन्दनों को सहने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेती है, इसके समस्त क्रिया-व्यापार एवं आनन्द से पुलकित होती है और सभी शक्तियों को अनुभव करती तथा उनकी ओर खुली होती है । अतिमानस अनुभव के इस महान् क्षेत्र को अपने अधिकार में लेकर सारे के सारे को प्रकाशमान और समस्वर बना देता है, तब इस क्षेत्र का अनुभव हमें अस्पष्ट और खण्डित रूप में नहीं होता, न वह मानसिक अज्ञान के द्वारा प्रयुक्त होने के कारण सीमाओं और भूलों में ग्रस्त ही होता है, वरन् वह और उसकी प्रत्येक गति अपने सत्य स्वरूप में तथा अपने समग्र बल एवं आनन्द के साथ साक्षात् प्रकाशित हो उठती है । इसके साथ ही, अतिमानस क्रियाशक्तिमय प्राण की-उसके सभी स्तरों की--महान् शक्तियों एवं सामर्थ्यों को, --जो शायद तब असीम हो जाती हैं, -हमारे जीवन में कार्य कर रही भगवान् की सरल, किन्तु फिर भी जटिल, विशुद्ध और सहजस्फूर्त किन्तु फिर भी अस्खलित एवं गहन इच्छा के अनुसार सञ्चालित करता है । वह प्राणेन्द्रिय को हमारे चारों ओर की प्राणशक्तियों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये एक वैसा ही पूर्ण साधन बना देता है, जैसा कि स्थूल इन्द्रियां स्थूल विश्व के रूपों और मात्रा-स्पर्शों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये हैं, साथ ही वह उसे आत्म-अभिव्यक्ति के यन्त्र के रूप में कार्य करनेवाली हमारी सक्रिय प्राण-शक्ति की प्रतिक्रियाओं का वहन करने के लिये एक पूर्ण प्रणालिका भी बना देता है ।

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इस प्राणमय चेतना एवं इन्द्रिय के दृग्विषयों को, भौतिक शक्तियों की अपेक्षा सूक्ष्म शक्तियों की क्रिया के इस प्रत्यक्ष सम्वेदन एवं अनुभव को और फिर उस क्रिया के प्रति की गयी प्रतिक्रिया को प्रायः बिना किसी भेद के 'चैत्य दृग्विषयों' की श्रेणी के अन्तर्गत कर दिया जाता है । एक विशेष अर्थ में, हमारे चैत्य अर्थात् अन्तरात्मा का जागरण ही, --ऐसी अन्तरात्मा का जो इस समय छुपी हुई है तथा भौतिक मन और इन्द्रियों की स्थूल क्रिया के द्वारा पूर्णतया अवरुद्ध या अंशत: आच्छादित है, -निमज्जित या प्रच्छन्न आन्तरिक प्राणमय चेतना को उपरितल पर ले आता है । इसके साथ ही वह एक आन्तरिक या प्रच्छन्न मानसिक चेतना और इन्द्रिय को भी प्रकट कर देता है जो केवल प्राण-शक्तियों के उनकी क्रीड़ा, परिणामों और दृग्विषयों को ही नहीं, वरन् मानसिक और चैत्य लोकों तथा उनके अन्दर विद्यमान सभी पदार्थों को और इस लोक के मानसिक व्यापारों, स्पन्दनों, दृग्विषयों, रूपों और प्रतिमाओं को भी प्रत्यक्ष रूप से देख सकती एवं अनुभव कर सकती हैं तथा स्थूल इन्द्रियों की सहायता के बिना और उनके द्वारा हमारी चेतना पर थोपी हुई सीमाओं में बंधे बिना एक मन एवं दूसरे मन के बीच सीधा सम्बन्ध स्थापित कर सकतीं हैं । परन्तु चेतना के इन आन्तरिक स्तरों की क्रिया दो भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है । उनमें से पहली जागते हुए प्रच्छन्न मन एवं प्राण की एक अधिक बाह्य एवं अव्यवस्थित क्रिया होती है जो मन और प्राणमय सत्ता की स्थूलतर कामनाओं एवं भ्रान्तियों से अवरुद्ध तथा उनके अधीन होती है और अपनी अनुभूति, शक्ति एवं क्षमताओं के क्षेत्र के व्यापक होने पर भी संकल्प और ज्ञान की भूलों एवं विकृतियों के अपरिमित संघात से कलुषित होती है, मिथ्या सुझावों और प्रतिमाओं से, मिथ्या और विरूप सहजबोधो, स्कुरणाओं एवं आवेगों से पूर्ण होती है जो प्राय : दूषित एवं विपर्यस्ततक होते हैं, इसके अतिरिक्त यह स्थूल मन और उसकी धूमिलताओं के हस्तक्षेप से भी दूषित होती है । यह एक निम्न कोटि की क्रिया है । अतीन्द्रियदर्शी, चैत्यवादी, प्रेतात्मवादी, गुह्यदर्शी तथा शक्तियों एवं सिद्धियों की खोज करनेवाले इसमें सहज ही फंस सकते हैं । इस प्रकार की खोज के खतरों और भूलों के विरुद्ध जो चेतावनियां दी जाती हैं वे सभी विशेष रूप से इस क्रिया पर ही लागू होती हैं । आध्यात्मिक पूर्णता के अभिलाषी को चाहिये कि यदि वह संकट के इस क्षेत्र से पूरे तौर पर न बच सकता हो तो इसे जितना जल्दी हो सके पार कर जाये, और इस विषय में निरापद नियम यह है कि साधक इनमें से किसी भी चीज में आसक्त न हो, वरन् आध्यात्मिक उन्नति को अपना एकमात्र वास्तविक लक्ष्य बनाये और अन्य वस्तुओं में तबतक पक्का विश्वास न करे जबतक मन और प्राण-सत्ता शुद्ध न हो जायें और अनुभव के ये आन्तरिक क्षेत्र आत्मा और अतिमानस की या

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कम-से-कम अध्यात्मप्रकाश-युक्त मन और अन्तरात्मा की ज्योति से आलोकित न हो उठें । कारण, जब मन शान्त और शुद्ध हो जाता है और शुद्ध चैत्य कामनामय पुरुष की इच्छाओं के आग्रह से मुक्त हो जाता है तब इन अनुभवों में किसी प्रकार का भी गंभीर संकट नहीं रहता, -हां, संकीर्णता का खतरा एवं भूल का कुछ अंश अवश्य रहता है जिसे तबतक पूर्ण रूप से दूर नहीं किया जा सकता जबतक आत्मा मन की भूमिका पर अनुभव और कार्य करती है । इनके सिवा अन्य संकटों से मुक्त हो जाने का कारण यह होता है कि तब सच्ची आन्तरात्मिक चेतना और उसकी शक्तियों की शुद्ध क्रिया होने लगती है तथा व्यक्ति एक ऐसे चैत्य अनुभव को ग्रहण करने लगता है जो व्याख्याकारी मन की सीमाओं में ग्रस्त रहने पर भी निकृष्ट विकृतियों से रहित, शुद्ध एवं वास्तविक होता है और उच्च आध्यात्मिकता एवं ज्योति प्राप्त कर सकता है । तथापि पूर्ण शक्ति एवं सत्य तो विज्ञान-भूमिका के उद्घाटन से तथा मानसिक और चैत्य अनुभव को विज्ञानमय बनाने से ही प्राप्त हो सकता है ।

 

  चैत्य पुरुष की चेतना और इसके अनुभवों का क्षेत्र लगभग असीम है और इसके दृग्विषयों की विविधता एवं जटिलता भी लगभग अनन्त है । यहां केवल उनकी कुछ-एक मोटी रूपरेखाओं और मुख्य लक्षणों का ही उल्लेख किया जा सकता है । उनमें से प्रथम और प्रधानतम है चैत्य इन्द्रियों की क्रिया । इन इन्द्रियों में से साधारणतया दर्शनेन्द्रिय सबसे अधिक विकसित होती है और जब स्थूल चेतना में निमग्नता-रूपी आवरण जो हमारी आन्तर दृष्टि को रोके रहता है, भंग हो जाता है तब सबसे पहले यह दर्शनेन्द्रिय ही कुछ विशाल रूप में प्रकट होती है । परन्तु चैत्य सत्ता में सभी स्थूल इन्द्रियों के अनुरूप सूक्ष्म इन्द्रियशक्तियां हैं, चैत्य श्रोत्र, स्पर्शेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय तथा स्वादेन्द्रिय हैं : निःसंदेह स्वयं भौतिक इन्द्रियां, वास्तव में, आन्तरिक इन्द्रिय का ही एक सीमित एवं बहिर्मुख क्रिया के रूप में बहि:प्रक्षेप हैं जिसके द्वारा वह स्थूल जड़तत्त्व के दृग्विषयों के अन्दर, उनमें से और उनपर अपने-आपको प्रकट करती है । चैत्य दृष्टि निज स्वभाववश ही उन प्रतिमाओं को ग्रहण करती है जो मानसिक या चैत्य आकाश, चित्ताकाश, के सूक्ष्म उपादान में निर्मित होती हैं । ये भौतिक पदार्थों व्यक्तियों, दृश्यों एवं घटनाओं की तथा इस स्थूल जगत् में जो कुछ भी है, था या होगा या हो सकता है उस सबकी चित्ताकाशगत प्रतिलिपि या छाप हो सकती हैं । ये प्रतिमाएं नाना रूपों में तथा सब प्रकार की अवस्थाओं में दिखायी देती हैं; कभी समाधि में तो कभी जाग्रत् अवस्था में, और जाग्रत् में भी कभी स्थूल नेत्रों के खुले होने पर तो कभी मुंदे रहने पर; कभी ये स्थूल पदार्थ अथवा माध्यम पर या उसके अन्दर प्रक्षिप्त-सी जान पड़ती हैं और कभी यों दिखायी देती हैं मानों इन्होंने भौतिक वायुमण्डल में स्थूल रूप धारण कर लिया हो; या फिर ये केवल चित्ताकाश में दिखायी देती हैं जो अपने-आपको

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इस स्थूलतर भौतिक वायुमण्डल के माध्यम से प्रकट करता है; कभी-कभी ये स्वयं स्थूल आंखों को एक गौण उपकरण बनाकर उनके द्वारा और मानों स्थूल प्रत्यक्ष की अवस्थाओं में भी दृष्टिगोचर होती हैं और कभी ये केवल चैत्य दृष्टि के द्वारा ही दिखायी देती हैं और तब ये, 'देश' के साथ हमारी साधारण दृष्टि के जो सम्बन्ध हैं उनसे बिलकुल स्वतत्न्त्र रहती हैं । इन सभी अवस्थाओं में वास्तविक करण सदा चैत्य दृष्टि ही होती है और उसकी शक्ति यह सूचित करती है कि चैत्य शरीर में चेतना कम जागृत है या अधिक, कभी-कभी जागती है या सामान्य रूप से जागृत ही रहती है और अधिक पूर्ण रूप में जागृत है या कम पूर्ण रूप में । इस प्रकार स्थूल दृष्टि के क्षेत्र से परे चाहे कितनी ही दूरी पर विद्यमान पदार्थों की प्रतिलिपि या छाप को अथवा भूत या भविष्य काल की प्रतिमाओं को देखा जा सकता है ।

 

   इन प्रतिलिपियों या छापों के अतिरिक्त चैत्य दृष्टि उन विचार-प्रतिमाओं तथा अन्य प्रकार के रूपों को भी ग्रहण करती है जो हमारे या दूसरे में मनुष्यों के अन्दर चेतना की अनवरत क्रिया से उत्पन्न होते हैं, और ये इस क्रिया के स्वरूप के अनुसार सत्य या असत्य की प्रतिमाएं या फिर ऐसी मिश्रित प्रतिमाएं हो सकती हैं जो कुछ सत्य हों या कुछ झूठी, और ये या तो केवल खोखले आवरण एवं रूप हो सकती हैं या फिर ऐसी प्रतिमाएं जो क्षणस्थायी जीवन एवं चेतना से अनुप्राणित हों और यह भी सम्भव है कि इनमें किसीन-किसी रूप में हमारे मन या प्राण पर अथवा उनके द्वारा हमारे शरीर पर भी किसी प्रकार की मंगल या अमंगल क्रिया करने किंवा कोई स्वेच्छाकृत या अनिच्छाकृत प्रभाव डालने की शक्ति भी हो । ये प्रतिलिपियां, प्रभाव, विचार-प्रतिमाएं एवं प्राणमय रूप तथा चेतना के ये बहिःप्रक्षेप ऐसी प्रतिनिधि-सत्ताएं या रचनाएं भी हो सकते हैं जो स्थूल जगत् की नहीं, वरन् हमसे परे के प्राणिक, चैत्य या मानसिक लोकों की हों तथा जो हमारे अपने मन में हमें दिखायी पड़ें अथवा मनुष्येतर सत्ताओं की ओर से हमपर प्रक्षिप्त की गयी हों । और जिस प्रकार चैत्य चेतना में यह चैत्य दृष्टि है जिसकी कुछ-एक अधिक बाह्य एवं साधारण अभिव्यक्तियां अतीन्द्रियदर्शन के नाम से सुप्रसिद्ध हैं, उसी प्रकार चैत्य श्रवण, चैत्य स्पर्श, स्वाद और गन्ध की शक्तियां भी हैं--अतीन्द्रिय श्रवण, अतीन्द्रिय बोध इनकी अधिक बाह्य अभिव्यक्तियां हैं । इनमें से प्रत्येक का अपने-अपने ढंग का ठीक वैसा ही क्षेत्र है जैसा चैत्य दृष्टि का, इनके दृग्विषयों के क्षेत्र, ढंग, अवस्थाएं और विविधताएं भी वैसी हौ हैं ।

 

  ये तथा अन्य दृग्विषय चैत्य अनुभव के एक परोक्ष एवं प्रतिनिधिभूत क्षेत्र की सृष्टि करते हैं; पर चैत्य इन्द्रिय में ऐसी शक्ति भी है कि वह पार्थिव या अतिपार्थिव सत्ताओं के साथ, उनकी चैत्य आत्माओं या चैत्य देहों के द्वारा, हमारा अधिक सीधा सम्बन्ध स्थापित करा सकती है, यहांतक कि वह पदार्थों के साथ भी हमारा ऐसा सम्बन्ध जोड़ सकती है, क्योंकि पदार्थों में भी ऐसी चैत्य सत्ता तथा ऐसी

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आत्माएं या अन्तःसत्ताएं होती हैं जो उन्हें धारण करती हैं तथा जो हमारी अन्तरात्म-चेतना के साथ आदान-प्रदान कर सकती हैं । इन अधिक प्रभावशाली पर विरलतर दृग्विषयों में से सर्वाधिक उल्लेखनीय वे हैं जो हमारी चेतना की एक विशेष शक्ति से सम्बन्ध रखते हैं । वह शक्ति यह है कि हमारी चेतना स्थूल देह से भिन्न किसी और जगह तथा किसी और ढंग से नाना प्रकार के कार्य करने के लिये अपने-आपको बाहर किसी भी केन्द्र पर केन्द्रित कर सकती है । वे कार्य हैं : चैत्य शरीर में आदान-प्रदान करना अथवा उसकी कोई अंशविभूति या प्रतिमूर्ति किसी अन्य स्थान पर प्रकट करना-यह आवश्यक रूप से तो नहीं, किन्तु प्रायः निद्रा या समाधि की अवस्था में होता है, तथा सत्ता के किसी अन्य स्तर के अधिवासियों के साथ नाना तरीकों से बहुविध सम्बन्ध या आदान-प्रदान स्थापित करना ।

 

  कारण, चेतना के स्तरों की एक अविच्छिन्न शृंखला है जो पृथ्वी के स्तर से सम्बद्ध एवं उसपर आश्रित चैत्य तथा अन्य मेखलाओं से आरम्भ होती है और यथार्थ, स्वतन्त्र, प्राणमय एवं चैत्य लोकों में से गुजरती हुई देवों के लोकों तथा सत्ता के उच्चतम अतिमानसिक एवं आध्यात्मिक स्तरोंतक पहुंचती है । और ये, हमारे जाग्रत् मन के बिना जाने, सचमुच ही हमारी अन्त: -प्रच्छन्न सत्ता पर सदैव कार्य कर रहे हैं, और हमारे जीवन तथा प्रकृति पर इनका काफी अधिक प्रभाव पड़ता है । भौतिक मन हमारा केवल एक छोटा-सा भाग है और इसके अतिरिक्त हमारी सत्ता का एक और कहीं अधिक विशाल क्षेत्र है जिसमें अन्य स्तरों का प्रभाव तथा उनकी उपस्थितियां एवं शक्तियां हमपर कार्य कर रही हैं और हमारी बाह्य सत्ता तथा उसके कार्यों को गठित करने में सहायता देती हैं । चैत्य चेतना का जागरण हमें हमारे अन्दर और चारों ओर विद्यमान इन शक्तियों, उपस्थितियों और प्रभावों से सचेतन होने की सामर्थ्य प्रदान करता है; और यद्यपि अशुद्ध, अद्यावधि अज्ञ एवं अपूर्ण मन में यह अनावृत सम्पर्क संकटों से पूर्ण होता है, तथापि यदि इसे ठीक प्रकार से तथा ठीक उद्देश्य के लिये प्रयुक्त किया जाये तो यह हमें उनके दास न रहकर उनके स्वामी बनने की तथा अपनी प्रकृति के आन्तर रहस्यों पर सचेतन एवं आत्म-नियन्त्रित प्रभुत्व प्राप्त करने की सामर्थ्य भी प्रदान करता है । चैत्य की चेतना आन्तर और बाह्य भूमिकाओं की, इस लोक तथा अन्य लोकों की इस परस्पर-क्रिया को दो प्रकार से हमारे सामने प्रकट करती है । एक तो यह कि हमें अपनी आन्तर चिन्तन-शक्ति एवं चेतन सत्ता पर उनके आघातों का, उनके सुझावों तथा सन्देशों का कुछ-कुछ भान होता है जो अत्यन्त स्थायी, विशाल, विशद एवं सजीव हो सकता है और उन आघातों आदि के प्रति हम वहां प्रतिक्रिया भी कर सकते हैं । दूसरे यह कि पार्थिव या अतिपार्थिव दृग्विषयों की अनेक प्रकार की प्रतीकात्मक, प्रतिलिप्यात्मक या प्रतिनिधि-रूप प्रतिमाएं विभिन्न चैत्य इन्द्रियों के समक्ष प्रकट होती हैं । परन्तु अन्य लोकों एवं भूमिकाओं की शक्तियों, बलों और

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सत्ताओं के साथ एक अधिक सीधा आदान-प्रदान स्थापित करना भी सम्भव है जो मूर्त रूप से गोचर एवं लगभग भौतिक हो, यहांतक कि कभी-कभी तो सक्रिय रूप से भौतिक हो; उसे एक पूर्ण किन्तु अस्थायी स्थूल-भौतिक रूप प्रदान करना भी सम्भव प्रतीत होता है । यह भी सम्भव है कि भौतिक चेतना और स्थूल जगत् की सीमाएं पूर्णतया भङ्ग हो जायें ।

 

   चैत्य चेतना के जागरण के फलस्वरूप हमारे अन्दर मन का छठी इन्द्रिय के रूप में सीधा एवं उन्मुक्त प्रयोग होने लगता है, और इस शक्ति को स्थिर एवं स्वाभाविक बनाया जा सकता है । भौतिक चेतना बाह्य साधनों, चिह्नों एवं संकेतों के द्वारा केवल दूसरों के मनों के साथ ही आदान-प्रदान कर सकती है अथवा हमारे चारों ओर के जगत् की घटनाओं को जान सकती है, और इस सीमित कार्यक्षेत्र के परे वह मन की अधिक सीधी सामर्थ्यों का केवल अनिश्चित एवं अव्यवस्थित प्रयोग ही कर सकती है तथा उसे कभी-कभी जो पूर्वबोध, सहज ज्ञान एवं सन्देश प्राप्त होते हैं उनका क्षेत्र अत्यन्त ही संकुचित है । निःसन्देह, हमारे मन अज्ञात गुप्त धाराओं के द्वारा दूसरों के मनों पर निरन्तर क्रिया कर रहे हैं तथा स्वयं भी उनकी क्रिया से निरन्तर प्रभावित हो रहे हैं, किन्तु हमें इन साधनों का कोई ज्ञान नहीं है और न इनपर हमारा कोई नियन्त्रण ही है । जैसे-जैसै चैत्य चेतना विकसित होती है, वैसे-वैसे वह हमें उन सब प्रकार के विचारों, सम्वेदनों, सुझावों, संकल्पों, आघातों और प्रभावों कै महान् संघात का ज्ञान कराती चलती है जिन्हें हम दूसरों से ग्रहण कर रहे हैं या दूसरों के पास भेज रहे हैं अथवा अपने चारों ओरके सर्वसामान्य मानसिक वातावरण से ग्रहण कर रहे हैं और उसके अन्दर फेंक रहे हैं । जैसे-जैसे उसकी शक्ति, यथार्थता एवं स्पष्टता का विकास होता है वैसे-वैसे हम इन विचारों आदि के मल स्रोत का पता लगा सकते हैं अथवा इनके उद्गम एवं हमारे प्रति संक्रमण को तत्क्षण ही अनुभव कर सकते हैं तथा अपने सन्देशों को भी सचेतन रूप से एवं ज्ञानयुक्त संकल्प के साथ प्रेषित कर सकते हैं । हम दूसरों के मनों की, चाहे शारीरिक रूप से वे हमारे पास हों या दूर, क्रियाओं को कम या अधिक यथार्थ रूप में एवं विवेकपूर्वक जान सकते हैं तथा उनके स्वभाव एवं चरित्र को, विचारों, वेदनों एवं प्रतिक्रियाओं को चैत्य इन्द्रिय या सीधे मानसिक प्रत्यक्ष के द्वारा अथवा अपने मन के अन्दर या उसके अंकनकारी तल पर उनके अत्यन्त गोचर एवं प्रायः अतिशय मूर्त ग्रहण के द्वारा समझ सकते और अनुभव कर सकते हैं या उनके साथ अपनेको एकाकार कर सकते हैं । इसके साथ ही हम कम-से-कम दूसरों की अन्तरात्माओं को तथा उनके स्थूल मनों को-यदि ये पर्याप्त सम्वेदनशील हों तो--अपनी आन्तर मानसिक या चैत्य सत्ता का, सचेतन रूप से, अनुभव करा सकते हैं और उन्हें उसके विचारों, सुझावों एवं प्रभावों के प्रति नमनशील बना सकते हैं अथवा, यहांतक कि, उसे या उसकी एक सक्रिय प्रतिमा

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को उनकी आभ्यन्तरिक ही नहीं, प्राणिक और भौतिक सत्ता में भी प्रभावकारी रूप में निक्षिप्त कर सकते हैं ताकि वह वहां एक सहायक या रूप-निर्मायक या आधिशासक शक्ति एवं उपस्थिति के रूप में कार्य कर सके ।

 

   चैत्यगत चेतना की इन सब शक्तियों का उपयोग एवं महत्त्व मानसिक से अधिक कुछ हो यह जरूरी नहीं और प्रायः वह इससे अधिक कुछ होता भी नहीं, किन्तु उसका उपयोग आध्यात्मिक भाव, प्रकाश और उद्देश्य के साथ तथा आध्यात्मिक प्रयोजन के लिये भी किया जा सकता है । ऐसा तभी हो सकता है यदि दूसरों के साथ हमारे चैत्य आदान-प्रदान का कोई आध्यात्मिक प्रयोजन हो तथा उसका आध्यात्मिक उपयोग किया जाये, और अधिकतर इस प्रकार के चैत्य-आध्यात्मिक आदान-प्रदान के द्वारा ही एक योगी गुरु अपने शिष्य की सहायता करता है । अपनी आन्तरिक प्रच्छन्न एवं चैत्य प्रकृति का तथा उसकी शक्तियों, उपस्थितियों और प्रभावों का ज्ञान एवं अन्य स्तरों और उनकी शक्तियों तथा सत्ताओं के साथ आदान-प्रदान की क्षमता किसी मानसिक या लौकिक उद्देश्य से ऊंचे उद्देश्य के लिये, अपनी सम्पूर्ण प्रकृति को अपने अधिकार और वश में लाने के लिये तथा सत्ता के परमोच्च आध्यात्मिक शिखरों के मार्ग में पड़नेवाले मध्यवर्ती स्तरों को पार करने के लिये भी प्रयुक्त की जा सकती है । परन्तु चैत्य की चेतना का सबसे सीधा आध्यात्मिक प्रयोग उसे भगवान् के साथ सम्पर्क, आदान-प्रदान और एकत्व का करण बनाना है । उसके द्वारा चैत्य-आध्यात्मिक प्रतीकों का एक लोक सहज ही खुल जाता है, प्रकाशप्रद, सशक्त और सजीव रूप एवं करण उन्मुक्त हो जाते हैं । इन सबको आध्यात्मिक रहस्यों के प्रकाशक हमारी आध्यात्मिक अभिवृद्धि के तथा आध्यात्मिक क्षमता एवं अनुभूति के विकास के सहायक और आध्यात्मिक शक्ति, ज्ञान या आनन्द के साधन बनाया जा सकता हैं । मन्त्र इन चैत्य-आध्यात्मिक साधनों में से एक है जो दिव्य अभिव्यक्ति के लिये एक प्रतीक, करण और नाद-शरीर--सब कुछ एक साथ ही हैं, और भगवान् तथा उनके व्यक्तित्वों या शक्तियों की मूर्तियां भी, जो योग में ध्यान या आराधना के लिये प्रयुक्त की जाती हैं, इसी प्रकार के साधन हैं । भगवान् के महान् रूप या विग्रह प्रकाश में आते हैं जिनके द्वारा वे अपनी जीवन्त उपस्थिति हमारे समक्ष प्रकट करते हैं । उनकी सहायता से हम उन्हें अपेक्षाकृत अधिक सुगमता के साथ तथा घनिष्ठ रूप में जान सकते हैं, उनकी उपासना कर सकते हैं, अपने-आपको उन्हें सौंप सकते हैं और जिन विभिन्न लोकों में उनका आवास एवं उपस्थिति है उनमें प्रवेश कर सकते हैं तथा वहां उनकी सत्ता की ज्योति में निवास कर सकते हैं । उनका शब्द एवं आदेश, उनकी उपस्थिति, उनका स्पर्श एवं मार्गनिर्देश हमें अपनी आध्यात्मीकृत चैत्य चेतना के द्वारा प्राप्त हो सकते हैं और, आत्मा से होनेवाले संक्रमण के एक सूक्ष्मत: -मूर्त साधन के रूप में, यह (चेतना) हमें हमारी सभी

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चैत्य इन्द्रियों के द्वारा उनके साथ निकट सम्पर्क एवं सान्निध्य प्रदान कर सकती है । ये चैत्य चेतना और चैत्य इन्द्रियों के कुछ आध्यात्मिक उपयोग हैं और इनके अतिरिक्त और भी कितने ही हैं । यह ठीक है कि वे (चैत्य चेतना और इन्द्रिय) सीमित और विकृत हो सकती हैं--क्योंकि सभी गौण उपकरण हमारे मन की एकांगी आत्म-परिसीमन की क्षमता के कारण आंशिक उपलब्धि के साधन भी हो सकते हैं, पर साथ ही वे एक अधिक सर्वांगीण उपलब्धि में बाधक भी बन सकते हैं, --तथापि वे आध्यात्मिक पूर्णता के पथ पर अत्यन्त ही उपयोगी हैं और पीछे, हमारे मनों की सीमा से मुक्त होकर, रूपान्तर प्राप्त कर तथा अतिमानसिक बनकर तो वे आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति में एक विविध-समृद्धिशाली तत्त्व बन जाती हैं ।

 

  भौतिक और प्राणिक चेतना एवं इन्द्रियों की भांति चैत्यगत चेतना एवं इन्द्रियां भी अतिमानसिक रूपान्तर प्राप्त कर सकती हैं और उसके द्वारा अपनी समग्र पूर्णता एवं सार्थकता प्राप्त करती हैं । अतिमानस चैत्य सत्ता को अपने अधिकार में कर लेता है, उसमें अवतरित होता है, उसे अपनी प्रकृति के सांचे में ढालकर रूपान्तरित कर देता है और उसे ऊपर उठाकर अतिमानसिक क्रिया और अवस्था का एक अङग एवं विज्ञान-पुरुष की एक अति-चैत्य सत्ता बना देता है । इस परिवर्तन का पहला परिणाम यह होता है कि हम चैत्यगत चेतना के दृग्विषयों को उनके सच्चे आधार पर स्थापित करते हैं । इसके लिये हमें उसमें दूसरों के मनों और अन्तरात्माओं तथा वैश्व प्रकृति के मन एवं अन्तरात्मा के साथ अपने मन और अन्तरात्मा की एकता का स्थायी बोध, पूर्ण साक्षात्कार एवं सुरक्षित उपलब्धि साधित करनी होती है । कारण, अतिमानसिक विकास का प्रभाव सदा ही यह होता है कि वह वैयक्तिक चेतना को विश्वमय बना देता है । जिस प्रकार वह, हमारी व्यक्तिगत प्राणिक क्रिया में तथा हमारे चारों ओर के सब लोगों के साथ उसके सम्बन्धों में भी हमें विश्वगत प्राण के द्वारा ही जीवन धारण करवाता है, उसी प्रकार वह हमें विश्वगत मन एवं चैत्य सत्ता के द्वारा ही विचार, वेदन और बोध करवाता है यद्यपि यह विचार आदि होता है व्यक्तिगत केन्द्र या करण के माध्यम से ही । इसके दो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण परिणाम होते हैं ।

 

  प्रथम, चैत्य इन्द्रिय और मन के दृग्विषयों की वह खण्डात्मकता, असम्बद्धता अथवा दुःसाध्य व्यवस्था एवं प्रायः सर्वथा कृत्रिम क्रमबद्धता समाप्त हो जाती है जो इन दृग्विषयों का उससे भी अधिक पीछा करती है जितना कि उपरितल की हमारी अधिक साधारण मानसिक क्रियाओं का करती है । ये दृग्विषय हमारे अन्दर अवस्थित विराट् आन्तर मन एवं हृत्पुरुष की समस्वर लीला बन जाते हैं, अपने सच्चे नियम को एवं यथार्थ रूपों और सम्बन्धों को प्राप्त कर लेते हैं तथा अपने ठीक-ठीक अर्थ प्रकट कर देते हैं । मानसिक भूमिका में भी मनुष्य मन को आध्यात्मिक बनाकर आत्मिक एकता का किसी-न-किसी प्रकार का साक्षात्कार प्राप्त

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कर सकता है, पर वह साक्षात्कार कभी भी सच्चे अर्थों में पूर्ण नहीं होता, कम-से-कम अपने व्यावहारिक प्रयोग में तो वह पूर्ण होता ही नहीं, और न वह इस वास्तविक एवं समग्र नियम, रूप और सम्बन्ध को तथा अपने गूढ़ार्थों की पूर्ण एवं अचूक सत्यता और यथार्थता को ही प्राप्त करता है । और, दूसरे, चैत्यगत चेतना की क्रिया में जो असामान्यता के, एक असाधारण, अनियमित और यहांतक कि अतिसामान्य एवं संकटपूर्ण क्रिया के लक्षण पाये जाते हैं, जिनके परिणामस्वरूप प्रायः मनुष्य का अपने जीवन पर नियन्त्रण नहीं रहता तथा सत्ता के अन्य भागों की क्रिया में बाधा या क्षति पहुंचती है, वे सब नष्ट हो जाते हैं । वह न केवल अपने अन्दर निज यथोचित व्यवस्था ही प्राप्त कर लेती है, बल्कि एक ओर तो भौतिक जीवन के साथ तथा दूसरी ओर सत्ता के आध्यात्मिक सत्य के साथ अपना यथार्थ सम्बन्ध भी आयत्त कर लेती है और तब सब कुछ ही देहधारी आत्मा की एक समस्वर अभिव्यक्ति बन जाता है । सृष्टिकारी अतिमानस ही सदा हमारी सत्ता के अन्य भागों के सच्चे मृल्यों, मर्मों और सम्बन्धों को अपने अन्दर धारण करता है और उसका प्राकटय ही हमारे लिये अपनी आत्मा और प्रकृति की समग्र उपलब्धि की शर्त है ।

 

  पूर्ण रूपान्तर हमें अपनी साक्षी चिन्मय आत्मा की स्थिति या भूमिका के ही एक विशेष प्रकार के परिवर्तन से प्राप्त नहीं होता, यहांतक कि उसके गुणधर्म के परिवर्तन से भी वह प्राप्त नहीं होता, वरन् उसके लिये हमारी चेतन सत्ता के सम्पूर्ण तत्त्व का भी परिवर्तित होना आवश्यक है । जबतक ऐसा नहीं हो जाता तबतक अतिमानसिक चेतना सत्ता के मानसिक एवं चैत्य वातावरण के--जिसमें भौतिक चेतना हमारी आत्मा की अभिव्यक्ति की एक गौण और, अधिकांश में, एक आश्रित प्रणाली बन गयी होती है, --ऊपर के स्तर में प्रकट होती है और उसे आलोकित एवं रूपान्तरित करने के लिये वह उसके अन्दर अपनी शक्ति, ज्योति एवं प्रभाव प्रेषित करती है । परन्तु जब निम्न चेतना का तत्त्व सत्ता की महत्तर शक्ति और बृहत्ता में, महान् बृहत् में परिवर्तित हो जाता है, उसके द्वारा प्रबलतया परिपूरित और उसमें अद्भुततया रूपान्तरित हो जाता है, मानों उसमें निगीर्ण एवं विलीन हो जाता है, --उस महान् एवं वृहत् में जिससे कि यह उद्भूत एवं प्रक्षिप्त हुआ है, केवल तभी हमें परिपूर्ण, समग्र एवं सुस्थिर अतिमानसिक चेतना प्राप्त होती है । सत्ता के जिस सारतत्त्व में, जिस चिन्मय आकाश में मानसिक या चैत्य चेतना एवं इन्द्रिय अपना अस्तित्व धारण करती हैं, प्रत्यक्ष ज्ञान, वेदन और अनुभव प्राप्त करती हैं, वह स्थूल मन और इन्द्रिय के (सत्ता-सम्बन्धी) सारतत्त्व एवं चिदाकाश से अधिक सूक्ष्म, मुक्त और नमनीय तत्त्व है । जबतक हमपर स्थूल मन और इन्द्रिय का प्रभुत्व रहता है तबतक चैत्य दृग्विषय हमें कम वास्तविक, यहांतक कि भ्रमात्मक प्रतीत हो सकते हैं, पर जितना ही अधिक हम अपनेको चैत्य के

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वातावरण के लिये तथा सत्ता के जिस आकाश में वह अवस्थित है उसके लिये अभ्यस्त बनाते हैं, उतना ही अधिक हम एक महत्तर सत्य को देखने लगते हैं तथा उन सब वस्तुओं के अधिक आध्यात्मिक एवं मूर्त सारतत्त्व को भी अनुभव करने लगते हैं जिनके अस्तित्व की साक्षी उस (चैत्य) का अधिक मुक्त एवं विशाल कोटि का अनुभव हमें प्रदान करता है । तब, भौतिक सत्ता भी अपने-आपको अवास्तविक एवं मायामय प्रतीत होने लग सकती है--पर यह भी एक अतिरञ्जना है और है एक नयी भ्रामक एकाङ्गिता जिसका कारण है केन्द्र का स्थानान्तरण तथा मन और इन्द्रिय की क्रिया का परिवर्तन--या फिर, कम-से-कम, एक ऐसी सत्ता प्रतीत हो सकती है जो कम प्रबल रूप में सत्य है । परन्तु जब चैत्य और भौतिक अनुभव, अपने सच्चे सन्तुलन में, सम्यक् रीति से संयुक्त हो जिते हैं तब हम एक साथ अपनी सत्ता के दो परस्पर पूरक लोकों में निवास करते हैं जिनमें से प्रत्येक की अपनी वास्तविकता होती है, पर तब चैत्य लोक उस सबको प्रकाश में लाता है जो भौतिक लोक के पीछे विद्यमान है, आत्म-दृष्टि एवं आत्मानुभव प्रमुखता प्राप्त कर लेता है और भौतिक दृष्टि तथा अनुभव को आलोकित करता एवं उसकी व्याख्या करता है । और जब अतिमानसिक रूपान्तर होता है तो वह हमारी चेतना के सम्पूर्ण सारतत्त्व को फिर बदल डालता है; वह एक महत्तर सत्ता, चेतना, इन्द्रिय और प्राण के आकाश को प्रकट कर देता है जो चैत्य आकाश को भी अपूर्णता का दोषी ठहराता है और यह दिखलाता है कि वह भी अपनें-आपमें एक अपूर्ण सत्य है तथा हम जो कुछ हैं, जो कुछ बन जाते और देखते हैं उस सबका केवल एक आंशिक सत्य है ।

 

  निःसन्देह, अतिमानसिक चेतना और उसकी शक्ति में चैत्य के समस्त अनुभवों को स्वीकार तथा समुष्ट किया जाता है, पर उन्हें एक महत्तर सत्य के प्रकाश तथा एक महत्तर आत्मा के सारतत्त्व से परिपूरित कर दिया जाता है । चैत्यगत चेतना पहले तो अतिमानसिक ज्योति एवं शक्ति तथा उसके स्पन्दनों की सत्यप्रकाशक तीव्रता के द्वारा धारित तथा आलोकित होती है और फिर वह उससे ओतप्रोत तथा अधिकृत हो जाती है । किसी विच्छिन्न आकस्मिक घटना, अपर्याप्त-आलोकित आभास, वैयक्तिक सुझाव, भ्रामक प्रभाव एवं विचार से अथवा सीमा या विकृति के किसी अन्य कारण से उत्पन्न जो कोई भी भूल या अतिरञ्जना मानसिक और आन्तरात्मिक अनुभव एवं ज्ञान के सत्य में हस्तक्षेप करती है वह प्रकाश में आ जाती है तथा उसे सुधार लिया जाता है या फिर वह वस्तुओं, व्यक्तियों, घटनाओं और संकेतों के तथा इस महत्तर विशाल सत्ता के अपने विशिष्ट प्रतिरूपों के सत्य की, सत्यम् ऋतमू की ज्योति में न ठहर सकने के कारण विलुप्त ही हो जाती है । समस्त चैत्य सन्देश, प्रतिलेख, प्रभाव, प्रतीक और प्रतिरूप अपना यथार्थ मूल्य प्राप्त करके, अपना सही स्थान ग्रहण कर लेते हैं तथा उन्हें उनके ठीक सम्बन्धों में

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सुस्थापित कर दिया जाता है । चैत्य बुद्धि और संवेदन अतिमानसिक इन्द्रियानुभव एवं ज्ञान से आलोकित हो उठते हैं; उनके दृग्विषय, जो आध्यात्मिक और भौतिक लोकों के मध्यवर्ती होते हैं, अपने सत्य और अर्थ को तथा अपने सत्य और महत्त्व की सीमाओं को भी स्वयमेव प्रकट करने लगते हैं । आन्तर दर्शन, श्रवण तथा अन्य सब प्रकार के ऐन्द्रिय संवेदन के समक्ष जो प्रतिमाएं उपस्थित होती हैं वे स्पन्दनों के एक विशालतर एवं उज्जलतर संघात के द्वारा, ज्योति और तीव्रता के एक महत्तर सारतत्त्व के द्वारा अधिकृत हो जाती तथा उसमें धारित रहती हैं । वह संघात एवं सारतत्त्व उनके अन्दर वैसा ही परिवर्तन लाता है जैसा कि स्थूल इन्द्रियों की वस्तुओं में, अर्थात् वह उनमें एक महत्तर समग्रता और यथार्थता के साथ-साथ ऐन्द्रिय ज्ञान की एक ऐसी सत्यप्रकाशक शक्ति भी लाता है जो वस्तु की प्रतिमा में निहित होती है । अन्त में सभी कुछको ऊपर अतिमानस में ले जाकर तथा उसके अन्दर आत्मसात् करके विज्ञान पुरुष के अनन्त-ज्योतिर्मय चैतन्य, ज्ञान और अनुभव का एक अङ्ग बना लिया जाता है ।

 

  इस अतिमानसिक रूपान्तर के बाद जीव की अवस्था उसके चेतना और ज्ञान-सम्बन्धी सभी अङगों में एक अनन्त वैश्व चेतना की अवस्था होगी जो विश्वभावापन्न व्यष्टि-पुरुष के द्वारा कार्य कर रही होगी । उसकी आधारभूत शक्ति होगी तादात्म्य की चेतना, तादात्म्य के द्वारा ज्ञान, -तादात्म्य का अभिप्राय है सत्ता का, चेतना का, सत्ता और चेतना की शक्ति का, सत्ता के आनन्द का अनन्त के साथ, भगवान् के साथ, अनन्त के अन्दर जो कुछ भी है उस सबके साथ, जो कुछ भी भगवान् की अभिव्यक्ति एवं आविर्भाव है उस सबके साथ तादात्म्य । यह चेतना एवं ज्ञान जिन साधनों को अपने करणोपकरणो के रूप में प्रयुक्त करेगा वे ये हैं-तादात्म्यलब्ध ज्ञान जिन चीजों की स्थापना कर सकता है उन सबका आध्यात्मिक साक्षात्कार, अतिमानसिक यथार्थ भाव एवं विचार जो अपनी प्रकृति में विचार का साक्षात् दर्शन, श्रवण और स्मरण ही होता है तथा जो चेतना के सामने सब वस्तुओं के सत्य को प्रकाशित, विवृत या निरूपित करता है, एक आन्तर सत्य-वाणी जो उसे व्यक्त करती है, और अन्त में एक अतिमानसिक इन्द्रिय जो सत्ता के सभी स्तरों में सब वस्तुओं, व्यक्तियों, बलों और शक्तियों के साथ सत्ता के सारतत्त्व में हमारा संस्पर्श-रूपी सम्बन्ध स्थापित करती है ।

 

  अतिमानस करणों कीं, उदाहरणार्थ, इन्द्रिय की सहायता पर उस प्रकार निर्भर नहीं करेगा, जिस प्रकार स्थूल मन हमारी इन्द्रियों की साक्षी पर निर्भर करता है, यद्यपि वह उन्हें ज्ञान के उच्चतर रूपों के लिये एक आरम्भ-बिन्दु बना सकेगा, जैसे कि वह सीधे इन उच्चतर रूपों के द्वारा आरम्भ करके इन्द्रियों को केवल रचना और बाह्य अभिव्यक्ति का साधन भी बना सकेगा । इसके साथ ही अतिमानसिक या विज्ञानमय जीव मन के वर्तमान चिन्तन को तादात्म्यलब्ध ज्ञान में एवं समग्र बोध

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से, व्योरे और सम्बन्ध के अन्तरीय अनुभव से प्राप्त ज्ञान में रूपान्तरित करके अपने अन्दर समा लेगा, वह सब ज्ञान असीम रूप से अधिक विशाल होगा, साक्षात्, प्रत्यक्ष एवं स्वतः -स्फूर्त, वह आत्मा के पहले से ही विद्यमान सनातन ज्ञान की अभिव्यक्ति होगा । विज्ञानमय जीव स्थूल इन्द्रियों को, मन की छठी इन्द्रिय की क्षमताओं को, चैत्य चेतना और चैत्य इन्द्रियों को हाथ में लेकर रूपान्तरित कर देगा, उन्हें विज्ञानमय बना देगा तथा उन्हें अनुभव के चरम आन्तर विषयीकरण के साधनों के रूप में प्रयुक्त करेगा । उसके लिये कोई भी चीज वस्तुत: बाह्य विषय नहीं होगी, क्योंकि वह सभी को उस वैश्व-चेतना की एकता में अनुभव करेगा जो कि उसकी अपनी होगी, अनन्त की उस सत्ता की एकता में अनुभव करेगा जो उसकी अपनी ही सत्ता होगी । वह जड़तत्त्व को, स्थूल जड़तत्त्व को ही नहीं, वरन् सूक्ष्म तथा सूक्ष्मातिसूक्ष्म जड़तत्त्व को भी आत्मा के उपादान और आकार के रूप में अनुभव करेगा, प्राण को तथा सब प्रकार की शक्ति को आत्मा की क्रिया-शक्ति के रूप में, अतिमानसीकृत मन को आत्मा के ज्ञान के साधन या प्रणालिका के रूप में, अतिमानस को आत्मा की अनन्त ज्ञान-सत्ता, ज्ञान-शक्ति और ज्ञानानन्द के रूप में अनुभव करेगा ।

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